ग़ज़ल
मेरे दिल में गम का सागर और गम की ही बातें हैं |
खुशियों के दिन बेहद छोटे, लम्बी, काली रातें हैं ||
दुनिया में जो मैंने देखा, कह पाना नामुमकिन है ,
नज़र यहाँ पर ज़हरीली है, गहरी जिनकी घातें हैं ||
रिश्तों का तो नाम यहाँ पर, लेना एक कडवाहट है,
दुश्मन वो ही यहाँ बड़े हैं, जिनसे दिल के नाते है ||
कहते हैं ये - ईश्वर ने ये अपना चमन बसाया है,
पर, शायद दिल बहलाने को, हम खुद को भरमाते हैं ||
उपज न जाने किस शैतानी फितरत की है, ये दुनिया,
जिसमें हर पल, काटों में हम, खुद दामन उलझाते हैं ||
दिल बहलाने को बस केवल एक यहाँ पर राह मिली,
दिल की आग बुझाने को जो, आंसू की बरसातें हैं ||
रचनाकार - अभय दीपराज
Wednesday, October 20, 2010
GHAZAL - 8
ग़ज़ल
गुमराह होता जा रहा इस प्रकृति का सतवंत है |
मर रही इंसानियत, हैवानियत बे-अंत है ||
हो रही निर्वस्त्र, मानवता की सीमा द्रौपदी,
युद्ध का आसार ही, हर ओर अब जीवंत है ||
हैं अधिकतर बाग़ अब अन्याय के अधिकार में,
बन गया जो आज अपना, पूज्यवर भगवंत है ||
एक से सौ, जुर्म का ज्वर संक्रमण बन बढ़ रहा,
राम भी अदृश्य हैं, अदृश्य ही हनुमंत है ||
नवजात शिशुओं का हुआ प्रारंभ भी जीवन नहीं,
और गड़ रहा छाती में उनके मांसभक्षी दन्त है ||
रोज व्रत खुलता है जिसका, गर्म-बहते खून से,
आज के युग में वही, कहला रहा अब संत है ||
बदनुमा और व्यर्थ सी अब हो गयी है पद्मजा ,
हर किसी का लक्ष्य, बनना, लक्ष्मी का कन्त है ||
आज फिर युग आ गया है, एक ऐसे मोड़ पर,
जिसके आगे है प्रलय और सभ्यता का अंत है ||
रचनाकार - अभय दीपराज
गुमराह होता जा रहा इस प्रकृति का सतवंत है |
मर रही इंसानियत, हैवानियत बे-अंत है ||
हो रही निर्वस्त्र, मानवता की सीमा द्रौपदी,
युद्ध का आसार ही, हर ओर अब जीवंत है ||
हैं अधिकतर बाग़ अब अन्याय के अधिकार में,
बन गया जो आज अपना, पूज्यवर भगवंत है ||
एक से सौ, जुर्म का ज्वर संक्रमण बन बढ़ रहा,
राम भी अदृश्य हैं, अदृश्य ही हनुमंत है ||
नवजात शिशुओं का हुआ प्रारंभ भी जीवन नहीं,
और गड़ रहा छाती में उनके मांसभक्षी दन्त है ||
रोज व्रत खुलता है जिसका, गर्म-बहते खून से,
आज के युग में वही, कहला रहा अब संत है ||
बदनुमा और व्यर्थ सी अब हो गयी है पद्मजा ,
हर किसी का लक्ष्य, बनना, लक्ष्मी का कन्त है ||
आज फिर युग आ गया है, एक ऐसे मोड़ पर,
जिसके आगे है प्रलय और सभ्यता का अंत है ||
रचनाकार - अभय दीपराज
GHAZAL - 7
ग़ज़ल
जाने क्या , ये हो गया है, आजकल इंसान को |
गलियां देता है वो माँ-बाप और भगवान् को ||
सर्जना और सर्जकों को कर तिरस्कृत आदमी,
पूज्य कहकर पूजता है आज वह शैतान को ||
छुद्रताओं से ढँकी है मानसिकता इस तरह,
गर्व हम कहने लगे हैं आजकल अभिमान को ||
क्रांति कहकर के घृणा का बीज बोते फिर रहे,
व्यर्थ अब हम कह रहे हैं - धर्म और ईमान को ||
न्याय और संस्कार, संस्कृति, देश की क्या बात अब,
बेचते है हम तो सिक्कों के लिए संतान को ||
योग्यता और योग्य से हमको घृणा है, डाह है,
मान मिलता आजकल बस , शक्ति और धनवान को ||
शर्म को हम इस तरह से खो चुके हैं आजकल,
भाट बनकर गा रहे हैं खुद के ही गुणगान को ||
रह गया है आज बस, इंसान, तन से आदमी,
त्याग डाला शेष हमने अपनी हर पहचान को ||
रचनाकार- अभय दीपराज
जाने क्या , ये हो गया है, आजकल इंसान को |
गलियां देता है वो माँ-बाप और भगवान् को ||
सर्जना और सर्जकों को कर तिरस्कृत आदमी,
पूज्य कहकर पूजता है आज वह शैतान को ||
छुद्रताओं से ढँकी है मानसिकता इस तरह,
गर्व हम कहने लगे हैं आजकल अभिमान को ||
क्रांति कहकर के घृणा का बीज बोते फिर रहे,
व्यर्थ अब हम कह रहे हैं - धर्म और ईमान को ||
न्याय और संस्कार, संस्कृति, देश की क्या बात अब,
बेचते है हम तो सिक्कों के लिए संतान को ||
योग्यता और योग्य से हमको घृणा है, डाह है,
मान मिलता आजकल बस , शक्ति और धनवान को ||
शर्म को हम इस तरह से खो चुके हैं आजकल,
भाट बनकर गा रहे हैं खुद के ही गुणगान को ||
रह गया है आज बस, इंसान, तन से आदमी,
त्याग डाला शेष हमने अपनी हर पहचान को ||
रचनाकार- अभय दीपराज
GHAZAL - 6
ग़ज़ल
दुनिया के कुछ लोगों के लिए मेरी सूरत इतनी काली है |
जिसके जीने पर मातम है और मौत पे एक दीवाली है ||
शायद मैं उन्हीं के हिस्से की साँसों को चुरा कर जीता हूँ,
इसलिए ही शायद पानी का भी, बर्तन उनका खाली है ||
मैं भी अपनी माँ का बेटा, अपनी बहनों का भाई हूँ ,
पर, जाने क्यों मेरे हर हक पर, उनकी आँख सवाली है ||
ये धरती भी, वो अम्बर भी या खुदा उन्हीं का कैसे है ?
कोई तो मुझे ये समझाए, क्यों उनकी नज़र मतवाली है ||
मुझको वो ज़हर कहते है पर , कुछ मेरे भी वो हमदम हैं,
जो मुझे प्यार से कहते हैं - तू फूलों की एक डाली है ||
वो जीने न देंगे मुझको , ये ख्वाब उन्होंने पाला है ,
लेकिन मेरा दिल कहता है ये बात न होने वाली है ||
रचनाकार - अभय दीपराज
दुनिया के कुछ लोगों के लिए मेरी सूरत इतनी काली है |
जिसके जीने पर मातम है और मौत पे एक दीवाली है ||
शायद मैं उन्हीं के हिस्से की साँसों को चुरा कर जीता हूँ,
इसलिए ही शायद पानी का भी, बर्तन उनका खाली है ||
मैं भी अपनी माँ का बेटा, अपनी बहनों का भाई हूँ ,
पर, जाने क्यों मेरे हर हक पर, उनकी आँख सवाली है ||
ये धरती भी, वो अम्बर भी या खुदा उन्हीं का कैसे है ?
कोई तो मुझे ये समझाए, क्यों उनकी नज़र मतवाली है ||
मुझको वो ज़हर कहते है पर , कुछ मेरे भी वो हमदम हैं,
जो मुझे प्यार से कहते हैं - तू फूलों की एक डाली है ||
वो जीने न देंगे मुझको , ये ख्वाब उन्होंने पाला है ,
लेकिन मेरा दिल कहता है ये बात न होने वाली है ||
रचनाकार - अभय दीपराज
GHAZAL - 5
ग़ज़ल
मेरे कुछ दोस्तों की दोस्ती , यूँ खूबसूरत है |
कि- अब मुझको न गैरों की, न दुश्मन की ज़रुरत है ||
मेरे दिल पर बहुत अहसान हैं इन खास अपनों के,
जो दिल में ज़ख्म के ये फूल हैं, इनकी इनायत है ||
मुहब्बत को मुहब्बत से भरोसा प्यार का देकर,
दिलों से खेलकर दिल तोडना, इनकी रिवायत है ||
उन्हें मिलती हैं खुशियाँ, क़त्ल करने के तमद्दुन में,
मगर मेरी तमद्दुन तो, मोहब्बत की इबादत है ||
वो दिलवर हैं मेरे दिल के, वो खुश हैं गर तो मैं खुश हूँ,
मेरे जानिब तो उनको क़त्ल की भी, हाँ, इजाज़त है ||
वफ़ा या दोस्ती, इंसानियत या प्यार का मज़हब,
मुझे है इश्क इन लब्जों से और उनको शिकायत है ||
रचनाकार - अभय दीपराज
मेरे कुछ दोस्तों की दोस्ती , यूँ खूबसूरत है |
कि- अब मुझको न गैरों की, न दुश्मन की ज़रुरत है ||
मेरे दिल पर बहुत अहसान हैं इन खास अपनों के,
जो दिल में ज़ख्म के ये फूल हैं, इनकी इनायत है ||
मुहब्बत को मुहब्बत से भरोसा प्यार का देकर,
दिलों से खेलकर दिल तोडना, इनकी रिवायत है ||
उन्हें मिलती हैं खुशियाँ, क़त्ल करने के तमद्दुन में,
मगर मेरी तमद्दुन तो, मोहब्बत की इबादत है ||
वो दिलवर हैं मेरे दिल के, वो खुश हैं गर तो मैं खुश हूँ,
मेरे जानिब तो उनको क़त्ल की भी, हाँ, इजाज़त है ||
वफ़ा या दोस्ती, इंसानियत या प्यार का मज़हब,
मुझे है इश्क इन लब्जों से और उनको शिकायत है ||
रचनाकार - अभय दीपराज
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