Wednesday, October 20, 2010

GHAZAL - 9

                          ग़ज़ल

मेरे  दिल में  गम  का सागर और गम की ही बातें हैं |
खुशियों  के  दिन  बेहद  छोटे,  लम्बी,  काली रातें हैं ||

दुनिया में जो मैंने देखा,  कह  पाना  नामुमकिन  है ,
नज़र  यहाँ  पर  ज़हरीली  है, गहरी  जिनकी घातें हैं ||

रिश्तों का तो नाम यहाँ पर,  लेना  एक  कडवाहट  है,
दुश्मन वो ही यहाँ बड़े हैं,  जिनसे   दिल  के  नाते  है ||

कहते  हैं ये - ईश्वर  ने  ये  अपना  चमन  बसाया  है,
पर, शायद दिल बहलाने को, हम खुद को भरमाते हैं ||

उपज न जाने किस शैतानी फितरत की है, ये दुनिया,
जिसमें हर पल, काटों में हम, खुद दामन उलझाते हैं ||

दिल बहलाने को बस केवल एक यहाँ पर राह मिली,
दिल  की  आग  बुझाने  को  जो, आंसू की बरसातें हैं ||


                    रचनाकार - अभय दीपराज

GHAZAL - 8

                            ग़ज़ल

गुमराह होता जा रहा इस प्रकृति का सतवंत है |
मर  रही   इंसानियत,  हैवानियत   बे-अंत   है ||

हो  रही  निर्वस्त्र,  मानवता  की  सीमा  द्रौपदी,
युद्ध का  आसार  ही,  हर  ओर  अब  जीवंत  है ||

हैं अधिकतर बाग़ अब अन्याय के अधिकार में,
बन गया जो आज अपना,  पूज्यवर भगवंत है ||

एक से सौ, जुर्म का ज्वर संक्रमण बन बढ़ रहा,
राम  भी  अदृश्य  हैं,  अदृश्य   ही   हनुमंत   है ||

नवजात शिशुओं का हुआ प्रारंभ भी जीवन नहीं,
और गड़ रहा छाती में उनके मांसभक्षी दन्त है ||

रोज व्रत खुलता है जिसका, गर्म-बहते खून से,
आज  के  युग  में  वही, कहला रहा अब संत है ||

बदनुमा  और  व्यर्थ  सी  अब  हो गयी है पद्मजा ,
हर किसी का लक्ष्य, बनना, लक्ष्मी का कन्त है ||

आज  फिर  युग  आ  गया  है, एक ऐसे मोड़ पर,
जिसके आगे है प्रलय  और सभ्यता का अंत है ||


                      रचनाकार - अभय दीपराज 

GHAZAL - 7

                       ग़ज़ल

जाने  क्या , ये  हो  गया  है, आजकल   इंसान   को |
गलियां   देता   है   वो  माँ-बाप   और  भगवान्  को ||

सर्जना   और  सर्जकों  को   कर   तिरस्कृत   आदमी,
पूज्य  कहकर   पूजता  है   आज   वह   शैतान   को ||

छुद्रताओं   से   ढँकी  है   मानसिकता   इस   तरह,
गर्व  हम  कहने  लगे  हैं  आजकल   अभिमान   को ||

क्रांति  कहकर  के  घृणा  का  बीज  बोते  फिर  रहे,
व्यर्थ  अब  हम  कह  रहे  हैं - धर्म  और  ईमान  को ||

न्याय और संस्कार, संस्कृति, देश की क्या बात अब,
बेचते  है  हम  तो  सिक्कों   के   लिए   संतान   को ||

योग्यता  और  योग्य  से  हमको  घृणा  है,  डाह  है, 

मान मिलता आजकल बस , शक्ति और धनवान को ||

शर्म  को   हम   इस  तरह  से  खो  चुके हैं आजकल,
भा
ट  बनकर  गा  रहे  हैं  खुद  के  ही  गुणगान  को ||           

रह  गया  है  आज  बस,  इंसान,  तन   से   आदमी,
 त्याग  डाला  शेष  हमने  अपनी  हर  पहचान  को ||


                   रचनाकार- अभय दीपराज

GHAZAL - 6

                     ग़ज़ल

दुनिया के कुछ लोगों के लिए मेरी सूरत इनी काली है |
जिसके जीने पर मातम है और मौत पे एक दीवाली है ||

शायद मैं उन्हीं के हिस्से की साँसों को चुरा कर जीता हूँ,
इसलिए ही शायद पानी का भी,  बर्तन उनका खाली है ||

मैं  भी  अपनी  माँ  का  बेटा,  अपनी  बहनों  का भाई हूँ ,
पर, जाने  क्यों  मेरे हर हक पर, उनकी आँख सवाली है
||

ये  धरती  भी, वो  अम्बर भी या खुदा उन्हीं का कैसे है ?
कोई तो मुझे ये समझाए, क्यों उनकी नज़र मतवाली है |
|

मुझको  वो ज़हर कहते है पर , कुछ मेरे भी वो हमदम हैं,
जो  मुझे  प्यार  से  कहते  हैं -  तू फूलों की एक डाली है ||

वो  जीने  न  देंगे  मुझको ,  ये  ख्वाब  उन्होंने  पाला है ,
लेकिन  मेरा  दिल  कहता  है  ये  बात  न  होने  वाली है ||


                       रचनाकार - अभय दीपराज

GHAZAL - 5

                           ग़ज़ल

मेरे   कुछ   दोस्तों   की   दोस्ती ,  यूँ   खूबसूरत   है |
कि- अब मुझको न गैरों की, न दुश्मन की  ज़रुरत है ||


मेरे  दिल  पर बहुत अहसान हैं इन  खास अपनों  के, 
जो  दिल  में  ज़ख्म  के ये फूल हैं, इनकी इनायत है ||


मुहब्बत  को  मुहब्बत  से  भरोसा  प्यार  का  देकर,
दिलों  से  खेलकर  दिल  तोडना,  इनकी  रिवायत है || 


उन्हें  मिलती  हैं  खुशियाँ, क़त्ल करने के तमद्दुन में,
मगर  मेरी  तमद्दुन   तो,  मोहब्बत  की  इबादत  है ||


वो दिलवर हैं मेरे दिल के, वो खुश हैं गर तो मैं खुश हूँ,
मेरे जानिब  तो उनको क़त्ल की भी, हाँ, इजाज़त है ||


वफ़ा  या  दोस्ती,  इंसानियत  या  प्यार  का  मज़हब,
मुझे  है  इश्क  इन लब्जों से और उनको शिकायत है ||


             रचनाकार - अभय दीपराज