ग़ज़ल
कहती है मुझे पागल दुनिया, मैं भटका हुआ इंसान जो हूँ |
दर्द भरी एक नज़्म जो हूँ, एक बिना बिका ईमान जो हूँ ||
वो वारिस मुझे बनाते हैं, अपनी नापाक तमद्दन का,
नाराज़ हैं मेरी फितरत पर , मैं उनका भी अरमान जो हूँ ||
वो मुझको समझ कर के दुश्मन, बन बैठे हैं मेरे दुश्मन,
राहों के खारों के लिये मैं, मौत का एक फरमान जो हूँ ||
कर लूँगा सफ़र मैं मंजिल तक, हर ठोकर भी मैं सह लूँगा,
पर, राह नहीं देती दुनिया, मैं उसके लिये तूफ़ान जो हूँ ||
तकदीर से शिकवा कोई नहीं, मालिक से शिकायत है लेकिन,
राही मैं सही, कोई बात नहीं, पर राहों से अंजान जो हूँ ||
रचनाकार - अभय दीपराज
Thursday, October 21, 2010
GHAZAL - 11
ग़ज़ल
दुनिया मुझसे कतराती है, शायद मैं पागल लगता हूँ |
बच कर वो मुझ से चलते हैं, मैं उनको काजल लगता हूँ ||
अक्सर लोगों ने मुझको यूँ , नफरत से भरकर देखा है ,
मैं सावन की घटा नहीं हूँ , बे - मौसम बादल लगता हूँ ||
मेरे दिल के कुछ ज़ख्मों ने, मुझको लहूलुहान किया है,
इसीलिये मैं कुछ उदास हूँ , और रोता सा कल लगता हूँ ||
मुझे समझना और समझाना, बहुत बोझ सा लगता है अब,
क्योंकि इन दोनों रूपों में , मैं एक झूठा छल लगता हूँ ||
मेरी ये चुभती खामोशी, उस चुभते गम से बेहतर है,
जिसमें मैं गर्जन करता सा मैला - खारा जल लगता हूँ ||
तुम भी मुझ से बच कर रहना, मैं एक ज़हरीला कतरा हूँ ,
इसीलिये तो मैं दुनिया को, एक कड़वा सा फल लगता हूँ ||
रचनाकार - अभय दीपराज
दुनिया मुझसे कतराती है, शायद मैं पागल लगता हूँ |
बच कर वो मुझ से चलते हैं, मैं उनको काजल लगता हूँ ||
अक्सर लोगों ने मुझको यूँ , नफरत से भरकर देखा है ,
मैं सावन की घटा नहीं हूँ , बे - मौसम बादल लगता हूँ ||
मेरे दिल के कुछ ज़ख्मों ने, मुझको लहूलुहान किया है,
इसीलिये मैं कुछ उदास हूँ , और रोता सा कल लगता हूँ ||
मुझे समझना और समझाना, बहुत बोझ सा लगता है अब,
क्योंकि इन दोनों रूपों में , मैं एक झूठा छल लगता हूँ ||
मेरी ये चुभती खामोशी, उस चुभते गम से बेहतर है,
जिसमें मैं गर्जन करता सा मैला - खारा जल लगता हूँ ||
तुम भी मुझ से बच कर रहना, मैं एक ज़हरीला कतरा हूँ ,
इसीलिये तो मैं दुनिया को, एक कड़वा सा फल लगता हूँ ||
रचनाकार - अभय दीपराज
GHAZAL - 10
ग़ज़ल
गिर गया है आदमी यूँ आज अपनी ज़ात से |
फिर रहा है हर कदम पर, वो ज़ुबां से, बात से ||
सत्य से अब हो गयी है, शत्रुता इंसान की,
इसलिए, वो वार इस पर कर रहा है, घात से ||
सच, परीक्षा की घड़ी है, आजकल ये धर्म की,
लड़ रहा है धर्म जिसमें, आज काली रात से ||
झूठ से और पाप से है, प्यार यूँ इंसान को,
गूँज युग को दे रहा वो, अब इन्हीं नगमात से ||
विश्वविजयी मनुज कल का, यूँ नपुंसक हो गया,
लग रहा है भय उसे अब, युद्ध के हालात से ||
आज की यह शान्ति, कल की क्रांति का संकेत है,
जन्म जो लेगी, पराजित पक्ष के प्रतिघात से ||
रचनाकार - अभय दीपराज
गिर गया है आदमी यूँ आज अपनी ज़ात से |
फिर रहा है हर कदम पर, वो ज़ुबां से, बात से ||
सत्य से अब हो गयी है, शत्रुता इंसान की,
इसलिए, वो वार इस पर कर रहा है, घात से ||
सच, परीक्षा की घड़ी है, आजकल ये धर्म की,
लड़ रहा है धर्म जिसमें, आज काली रात से ||
झूठ से और पाप से है, प्यार यूँ इंसान को,
गूँज युग को दे रहा वो, अब इन्हीं नगमात से ||
विश्वविजयी मनुज कल का, यूँ नपुंसक हो गया,
लग रहा है भय उसे अब, युद्ध के हालात से ||
आज की यह शान्ति, कल की क्रांति का संकेत है,
जन्म जो लेगी, पराजित पक्ष के प्रतिघात से ||
रचनाकार - अभय दीपराज
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