अभय कान्त झा दीपराज कृत -
ग़ज़ल
मुझे बेचैन करके, बनके बुत वो आज चुप - चुप हैं |
मैं सन्नाटे में ग़ुम हूँ, मेरे दिल के साज़ चुप - चुप हैं ||
वो बनके प्यार का तूफ़ान, इस पहलू में आये थे,
रही दो दिन मुहब्बत, लुट गया दिल, ताज चुप -चुप हैं ||
जलाकर आशियाँ अपना, रहो आकर मेरे दिल में,
कहा था जिसने कल, हाँ आज, वो ही नाज़ चुप - चुप हैं ||
हज़ारों बार मरकर भी, जो संग जीने के वादे थे,
हुए दो पल में वादे - ख़ाक, अब आवाज़ चुप - चुप हैं ||
खुदारा इन हसीनों की, मेहरबानी का सच ये है -
झुकी गर्दन पे भी तलवार हैं नाराज़, चुप - चुप हैं ||
वफाओं को मेरी वो तौलते हैं बेवफा बनकर,
गज़ब दिलक़श मेरे कातिल के ये अंदाज़, चुप-चुप हैं ||
उठाया जो कदम हमने, नशे में कुछ नहीं सोचा,
यही अंजाम था उसका तो अब आगाज़ चुप-चुप हैं ||
खता है ये मेरी मैंने मुहब्बत की खता की है,
नहीं शिकवा जो साँसें दर्द से नासाज़ चुप - चुप हैं ||
रचनाकार - अभय दीपराज
Monday, October 10, 2011
Sunday, October 9, 2011
Ghazal - 125
अभय कान्त झा दीपराज कृत-
ग़ज़ल
ज़िन्दगी में तुम्हें जब भी ठोकर लगे, याद रखना मेरा प्यार काम आयेगा |
मैं करूँगा दुआ जब किसी के लिए, मेरे होंठों पे तेरा भी नाम आयेगा ||
मेरी हस्ती बड़ी तो नहीं है मगर, हाथ थामूँगा तेरा, निभाऊँगा मैं,
दोस्त तूफाँ में होगी जो कश्ती तेरी, बन के साहिल मेरा हर कलाम आयेगा ||
बात हो शाम की या सुबह की किरण, तेरी राहों से काँटे चुनेगा ये दिल,
कोई तुझको निहारे, न चाहूँगा मैं, बन के चिलमन मेरा हर सलाम आयेगा ||
मुस्कुराकर किसी को जो देखोगे तुम, दिल जलेगा मगर मैं ये सह जाऊँगा,
दर्द भी तेरा सहने की खातिर कभी, दोस्त हाथों में मेरे न जाम आयेगा ||
कोशिशें यूँ न कर भूलने की मुझे, कोई सपना नहीं हूँ हकीकत हूँ मैं,
आँख से जब भी छलकेंगे आँसू तेरे, बन के आँचल मेरा हर पयाम आयेगा ||
मेरा रिश्ता ये तुझसे नया तो नहीं, हमसफ़र खेल है ये पुराना बहुत,
देखना एक दिन ये बताने तुझे, खुद ज़हां के खुदा का निजाम आयेगा ||
रचनाकार - अभय दीपराज
ग़ज़ल
ज़िन्दगी में तुम्हें जब भी ठोकर लगे, याद रखना मेरा प्यार काम आयेगा |
मैं करूँगा दुआ जब किसी के लिए, मेरे होंठों पे तेरा भी नाम आयेगा ||
मेरी हस्ती बड़ी तो नहीं है मगर, हाथ थामूँगा तेरा, निभाऊँगा मैं,
दोस्त तूफाँ में होगी जो कश्ती तेरी, बन के साहिल मेरा हर कलाम आयेगा ||
बात हो शाम की या सुबह की किरण, तेरी राहों से काँटे चुनेगा ये दिल,
कोई तुझको निहारे, न चाहूँगा मैं, बन के चिलमन मेरा हर सलाम आयेगा ||
मुस्कुराकर किसी को जो देखोगे तुम, दिल जलेगा मगर मैं ये सह जाऊँगा,
दर्द भी तेरा सहने की खातिर कभी, दोस्त हाथों में मेरे न जाम आयेगा ||
कोशिशें यूँ न कर भूलने की मुझे, कोई सपना नहीं हूँ हकीकत हूँ मैं,
आँख से जब भी छलकेंगे आँसू तेरे, बन के आँचल मेरा हर पयाम आयेगा ||
मेरा रिश्ता ये तुझसे नया तो नहीं, हमसफ़र खेल है ये पुराना बहुत,
देखना एक दिन ये बताने तुझे, खुद ज़हां के खुदा का निजाम आयेगा ||
रचनाकार - अभय दीपराज
Friday, October 7, 2011
अभय कान्त झा दीपराज कृत -
मैथिली ग़ज़ल
सोचैत छथि किछु लोकनि अक्सर- हमर कप्पार जरल अछि |
उठावय में जे भारी अछि, एहन किछु भार परल अछि ||
जखन विश्वास अपना पर, अहाँ के नहिं रहत बाँचल,
ओहू शेरक नज़र सँ मोन घबरायत जे मरल अछि ||
कोना ओहि आदमी के जीत भेंटतै वा सफल होयत ....?
जे बस हरदम बनल कोढ़ियाठ, बिस्तर ध क परल अछि ||
पड़ोसी भाई के कनियाँ, अहाँ के साइर और भौजी,
लगैत अछि देह हुनकर माटि नहि, कुन्दन सँ गढ़ल अछि ||
बहुत किछु ज्ञान रहितो हम, बहुत गलती सँ नहिं बचलौं,
तेना लागल जेना दारु, एखन माथा में चढल अछि ||
परीक्षा के जखन हम नाम सुनैत छी त कँपैत छी,
लगैत अछि- सबटा बिसरल रहैत छी, जे की पढल अछि ||
जों राखब मोन में संतोष, थोरबो में खुशी भेंटत,
ओ गाछी काल्हि फेर फरत, जे कम एहि बेर फरल अछि ||
जे करक अछि अहाँके काज, करब जों, त भ जायत,
जों देहक दर्द के अनुभव करब, लागत जे बढल अछि ||
निराशा मोन में जों अछि, त रस्ता नहिं कटत कखनों,
बुझायत ई- जेना किछु काँट सन तरवा में गड़ल अछि ||
भेंटल जे हैसियत, ओहि सँ, करू उपकार दुर्बल के,
ओ पोखरि कोन काजक ? जे भरल अछि किन्तु सड़ल अछि ||
रचनाकार - अभय दीपराज
सोचैत छथि किछु लोकनि अक्सर- हमर कप्पार जरल अछि |
उठावय में जे भारी अछि, एहन किछु भार परल अछि ||
जखन विश्वास अपना पर, अहाँ के नहिं रहत बाँचल,
ओहू शेरक नज़र सँ मोन घबरायत जे मरल अछि ||
कोना ओहि आदमी के जीत भेंटतै वा सफल होयत ....?
जे बस हरदम बनल कोढ़ियाठ, बिस्तर ध क परल अछि ||
पड़ोसी भाई के कनियाँ, अहाँ के साइर और भौजी,
लगैत अछि देह हुनकर माटि नहि, कुन्दन सँ गढ़ल अछि ||
बहुत किछु ज्ञान रहितो हम, बहुत गलती सँ नहिं बचलौं,
तेना लागल जेना दारु, एखन माथा में चढल अछि ||
परीक्षा के जखन हम नाम सुनैत छी त कँपैत छी,
लगैत अछि- सबटा बिसरल रहैत छी, जे की पढल अछि ||
जों राखब मोन में संतोष, थोरबो में खुशी भेंटत,
ओ गाछी काल्हि फेर फरत, जे कम एहि बेर फरल अछि ||
जे करक अछि अहाँके काज, करब जों, त भ जायत,
जों देहक दर्द के अनुभव करब, लागत जे बढल अछि ||
निराशा मोन में जों अछि, त रस्ता नहिं कटत कखनों,
बुझायत ई- जेना किछु काँट सन तरवा में गड़ल अछि ||
भेंटल जे हैसियत, ओहि सँ, करू उपकार दुर्बल के,
ओ पोखरि कोन काजक ? जे भरल अछि किन्तु सड़ल अछि ||
रचनाकार - अभय दीपराज
Tuesday, October 4, 2011
अभय कान्त झा दीपराज के मैथिली गीत -
सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा...............
सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा, अयलथि मिथिला धाम |
मिथिलावासी, जगदम्बा के, उठि-उठि करथि प्रणाम ||
जगजननी के सुन्दर मुखड़ा, सुन्दर मोहक रूप |
लागि रहल छल, जेना बर्फ पर, पसरल भोरक धूप ||
मुग्ध भेलौं और धन्य भेलौं हम, देखि रूप अभिराम |
सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा, अयलथि मिथिला धाम ||१ ||
मैया सब के आशिष द क, सबके देलखिन्ह नेह |
और कहलथि जे- आइ एलौं हम, नैहर अप्पन गेह ||
अही माटि के बेटी छी हम, इहय हमर अछि गाम |
सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा, अयलथि मिथिला धाम ||२||
दंग- दंग हम केलों निवेदन- जननी ई उपकार करू |
धर्मक नैया डोलि रहल अछि, मैया बेड़ा पार करू ||
ओ कहलथि- हटि जाउ पाप सँ, नीक भेंटत परिणाम |
सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा, अयलथि मिथिला धाम ||३||
एहि के बाद शक्ति ई भखलनि- हम अहाँ के माली छी |
लेकिन हमहीं सीता - गौरी, हमहीं दुर्गा-काली छी ||
जेहन कर्म रहत ओहने फल, करब अहाँ के नाम |
सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा, अयलथि मिथिला धाम ||४||
आखिर में जगदम्बा-जननी, सीता-रामक रूप लेलाह |
और प्रकाशपुंज बनिकयओ हमरे सब में उतरि गेलाह ||
देलथि ज्ञान जे - एक शक्ति के, छी हम ललित-ललाम ||
सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा, अयलथि मिथिला धाम ||५||
बाबू ! अब त बिसरि जाउ ई- भेद - भाव के राग |
बेटा - बेटी, ऊँच- नीच और छल - प्रपंच के दाग ||
नहिं त आखिर अपने भुगतव, अपन पाप के दाम |
सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा, अयलथि मिथिला धाम ||६||
सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा, अयलथि मिथिला धाम |
मिथिलावासी, जगदम्बा के, उठि-उठि करथि प्रणाम ||
रचनाकार- अभय दीपराज
सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा, अयलथि मिथिला धाम |
मिथिलावासी, जगदम्बा के, उठि-उठि करथि प्रणाम ||
जगजननी के सुन्दर मुखड़ा, सुन्दर मोहक रूप |
लागि रहल छल, जेना बर्फ पर, पसरल भोरक धूप ||
मुग्ध भेलौं और धन्य भेलौं हम, देखि रूप अभिराम |
सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा, अयलथि मिथिला धाम ||१ ||
मैया सब के आशिष द क, सबके देलखिन्ह नेह |
और कहलथि जे- आइ एलौं हम, नैहर अप्पन गेह ||
अही माटि के बेटी छी हम, इहय हमर अछि गाम |
सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा, अयलथि मिथिला धाम ||२||
दंग- दंग हम केलों निवेदन- जननी ई उपकार करू |
धर्मक नैया डोलि रहल अछि, मैया बेड़ा पार करू ||
ओ कहलथि- हटि जाउ पाप सँ, नीक भेंटत परिणाम |
सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा, अयलथि मिथिला धाम ||३||
एहि के बाद शक्ति ई भखलनि- हम अहाँ के माली छी |
लेकिन हमहीं सीता - गौरी, हमहीं दुर्गा-काली छी ||
जेहन कर्म रहत ओहने फल, करब अहाँ के नाम |
सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा, अयलथि मिथिला धाम ||४||
आखिर में जगदम्बा-जननी, सीता-रामक रूप लेलाह |
और प्रकाशपुंज बनिकयओ हमरे सब में उतरि गेलाह ||
देलथि ज्ञान जे - एक शक्ति के, छी हम ललित-ललाम ||
सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा, अयलथि मिथिला धाम ||५||
बाबू ! अब त बिसरि जाउ ई- भेद - भाव के राग |
बेटा - बेटी, ऊँच- नीच और छल - प्रपंच के दाग ||
नहिं त आखिर अपने भुगतव, अपन पाप के दाम |
सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा, अयलथि मिथिला धाम ||६||
सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा, अयलथि मिथिला धाम |
मिथिलावासी, जगदम्बा के, उठि-उठि करथि प्रणाम ||
रचनाकार- अभय दीपराज
Thursday, September 29, 2011
अभय कान्त झा दीपराज के मैथिली गीत -
बड़भागी हम मिथिलावासी. एहि धरती सन माय कतय |
जेहि आँगन जगदम्बा बेटी, पाहुन राम जमाय जतय ||
पग - पग पोखरि, पान - मखानक और धानक भण्डार भरल |
गंगा - गंडक, कमला - कोसी, अमृत सन जलधार भरल ||
बुद्धि - विवेक, ज्ञान और बल के, परचम नित फहराय जतय |
जेहि आँगन जगदम्बा बेटी, पाहुन राम जमाय जतय ||१||
कालीदास, मदन, विद्यापति, मंडन और अयाचिक धाम |
एहि आँगन में उगना भोला, एहि आँगन चाणक्य ललाम ||
गौतम-कपिल-जनक के तप बल, छाया बनिकय छाय जतय |
बड़भागी हम मिथिलावासी. एहि धरती सन माय कतय ||२||
सादा - सरल - सरस - शुचि भोजन, चूड़ा-दही, साग और भात |
मज्जन-पूजन, संध्या वंदन, नैतिक-चिंतन, सबहक बात ||
पावन और पवित्र मानवता, नित-प्रतिदिन अधिकाय जतय |
जेहि आँगन जगदम्बा बेटी, पाहुन राम जमाय जतय ||३||
धर्मक - धुरी धरा मिथिला के, सभ्य समाजक ई सिरमौर |
करब प्रयास सदा हम सब ई- एहि के गौरव बढ़य और ||
धर्म नैं कहियो जाय एतय सँ, पाप नष्ट भय जाय जतय |
बड़भागी हम मिथिलावासी. एहि धरती सन माय कतय ||४||
बड़भागी हम मिथिलावासी. एहि धरती सन माय कतय |
जेहि आँगन जगदम्बा बेटी, पाहुन राम जमाय जतय ||
अभय कान्त झा दीपराज के मैथिली गीत -
बड़भागी हम मिथिलावासी........
बड़भागी हम मिथिलावासी. एहि धरती सन माय कतय |
जेहि आँगन जगदम्बा बेटी, पाहुन राम जमाय जतय ||
पग - पग पोखरि, पान - मखानक और धानक भण्डार भरल |
गंगा - गंडक, कमला - कोसी, अमृत सन जलधार भरल ||
बुद्धि - विवेक, ज्ञान और बल के, परचम नित फहराय जतय |
जेहि आँगन जगदम्बा बेटी, पाहुन राम जमाय जतय ||१||
कालीदास, मदन, विद्यापति, मंडन और अयाचिक धाम |
एहि आँगन में उगना भोला, एहि आँगन चाणक्य ललाम ||
गौतम-कपिल-जनक के तप बल, छाया बनिकय छाय जतय |
बड़भागी हम मिथिलावासी. एहि धरती सन माय कतय ||२||
सादा - सरल - सरस - शुचि भोजन, चूड़ा-दही, साग और भात |
मज्जन-पूजन, संध्या वंदन, नैतिक-चिंतन, सबहक बात ||
पावन और पवित्र मानवता, नित-प्रतिदिन अधिकाय जतय |
जेहि आँगन जगदम्बा बेटी, पाहुन राम जमाय जतय ||३||
धर्मक - धुरी धरा मिथिला के, सभ्य समाजक ई सिरमौर |
करब प्रयास सदा हम सब ई- एहि के गौरव बढ़य और ||
धर्म नैं कहियो जाय एतय सँ, पाप नष्ट भय जाय जतय |
बड़भागी हम मिथिलावासी. एहि धरती सन माय कतय ||४||
बड़भागी हम मिथिलावासी. एहि धरती सन माय कतय |
जेहि आँगन जगदम्बा बेटी, पाहुन राम जमाय जतय ||
रचनाकार - अभय दीपराज
Monday, May 9, 2011
Wednesday, May 4, 2011
Ghazal -26
ग़ज़ल
दोस्तों, फिर आदमीयत को, ज़रा आवाज़ दो |
गीत एक तुम भी उठा लो, मुझको भी एक साज़ दो ||
माँ बुलाती है हमें फिर , अपनी रक्षा के लिये,
फिर से अपनी शक्ति को तुम, एक नया परवाज़ दो ||
धर्म ने फिर से पिता बनकर, पुकारा है हमें,
आओ, इसके माँ को फिर, माँ का अंदाज़ दो ||
डस रहा है आजकल, अन्याय जग में न्याय को,
न्याय की उजली सुबह को, फिर नया आगाज़ दो ||
फ़र्ज़ के फरमान से हम, बे-खबर हैं आजकल,
फ़र्ज़ को फिर से पुकारो, और उसे फिर ताज दो ||
आजकल अधिकार का, हमको नशा सा हो गया,
इस ज़हर को अब न ज़्यादा, और ज़्यादा नाज़ दो ||
आदमी हैं हम, हमारी राह है- इन्सानियत,
आज के इस वक़्त को फिर, ये दिशाएँ आज दो ||
रचनाकार - अभय दीपराज
दोस्तों, फिर आदमीयत को, ज़रा आवाज़ दो |
गीत एक तुम भी उठा लो, मुझको भी एक साज़ दो ||
माँ बुलाती है हमें फिर , अपनी रक्षा के लिये,
फिर से अपनी शक्ति को तुम, एक नया परवाज़ दो ||
धर्म ने फिर से पिता बनकर, पुकारा है हमें,
आओ, इसके माँ को फिर, माँ का अंदाज़ दो ||
डस रहा है आजकल, अन्याय जग में न्याय को,
न्याय की उजली सुबह को, फिर नया आगाज़ दो ||
फ़र्ज़ के फरमान से हम, बे-खबर हैं आजकल,
फ़र्ज़ को फिर से पुकारो, और उसे फिर ताज दो ||
आजकल अधिकार का, हमको नशा सा हो गया,
इस ज़हर को अब न ज़्यादा, और ज़्यादा नाज़ दो ||
आदमी हैं हम, हमारी राह है- इन्सानियत,
आज के इस वक़्त को फिर, ये दिशाएँ आज दो ||
रचनाकार - अभय दीपराज
Monday, March 21, 2011
अभय कान्त झा दीपराज के मैथिली गीत -
अभय कान्त झा दीपराज के मैथिली गीत -५-
बेटी के दहेज़ के भार ..............
बनल असह्य संताप समाजक, बेटी के दहेज़ के भार |
भैया - बाबू गोर लगैत छी, बंद करू ई अत्याचार ||
जे बेटी जननी समाज के, मूल प्रेम - स्नेह के |
अपमानक हम पातक लैत छी, ओहि बेटी के देह के ||
अपन मान सँ हम अविवेकी, अपने कयलौं दुर्व्यवहार |
भैया - बाबू गोर लगैत छी, बंद करू ई अत्याचार || १ ||
बड़ ज्ञानी, बड़ शिष्टाचारी, मानव बनि हम जन्म लेलौं |
नीति - न्याय के परिभाषा हम कयलौं, बड़ सद्कर्म केलों ||
सब यश पर भारी ई अपयश, संतानक कयलौं व्यापार |
भैया - बाबू गोर लगैत छी, बंद करू ई अत्याचार || २ ||
जेहि बेटी में दुर्गा - कमला और सीता के वास अहि |
ओ बेटी अपना नैहर पर बोझ बनल, उपहास अहि ||
एहन पातकी - पापी छी हम, हाँ, एहि पातक पर धिक्कार |
भैया - बाबू गोर लगैत छी, बंद करू ई अत्याचार || ३ ||
बेटी के अपमानक ई विष, उपटा देलक जों ई फूल |
हमर - अहाँ के, सबहक आँगन में नाचत विनाश के शूल ||
संकट ई गंभीर भेल अब, करिऔ एहि पर तुरत विचार |
भैया - बाबू गोर लगैत छी, बंद करू ई अत्याचार || ४ ||
आइ अगर ई व्यथा हमर अछि, काल्हि अहाँ के ई अभिशाप |
एक - एक कय पेरि रहल अछि, सबके एहि ज्वाला के दाप ||
सबहक गर्दन, शान्ति और सुख, काटि रहल अछि ई तलवार |
भैया - बाबू गोर लगैत छी, बंद करू ई अत्याचार || ५ ||
बनल असह्य संताप समाजक, बेटी के दहेज़ के भार |
भैया - बाबू गोर लगैत छी, बंद करू ई अत्याचार ||
रचनाकार- अभय दीपराज
बेटी के दहेज़ के भार ..............
बनल असह्य संताप समाजक, बेटी के दहेज़ के भार |
भैया - बाबू गोर लगैत छी, बंद करू ई अत्याचार ||
जे बेटी जननी समाज के, मूल प्रेम - स्नेह के |
अपमानक हम पातक लैत छी, ओहि बेटी के देह के ||
अपन मान सँ हम अविवेकी, अपने कयलौं दुर्व्यवहार |
भैया - बाबू गोर लगैत छी, बंद करू ई अत्याचार || १ ||
बड़ ज्ञानी, बड़ शिष्टाचारी, मानव बनि हम जन्म लेलौं |
नीति - न्याय के परिभाषा हम कयलौं, बड़ सद्कर्म केलों ||
सब यश पर भारी ई अपयश, संतानक कयलौं व्यापार |
भैया - बाबू गोर लगैत छी, बंद करू ई अत्याचार || २ ||
जेहि बेटी में दुर्गा - कमला और सीता के वास अहि |
ओ बेटी अपना नैहर पर बोझ बनल, उपहास अहि ||
एहन पातकी - पापी छी हम, हाँ, एहि पातक पर धिक्कार |
भैया - बाबू गोर लगैत छी, बंद करू ई अत्याचार || ३ ||
बेटी के अपमानक ई विष, उपटा देलक जों ई फूल |
हमर - अहाँ के, सबहक आँगन में नाचत विनाश के शूल ||
संकट ई गंभीर भेल अब, करिऔ एहि पर तुरत विचार |
भैया - बाबू गोर लगैत छी, बंद करू ई अत्याचार || ४ ||
आइ अगर ई व्यथा हमर अछि, काल्हि अहाँ के ई अभिशाप |
एक - एक कय पेरि रहल अछि, सबके एहि ज्वाला के दाप ||
सबहक गर्दन, शान्ति और सुख, काटि रहल अछि ई तलवार |
भैया - बाबू गोर लगैत छी, बंद करू ई अत्याचार || ५ ||
बनल असह्य संताप समाजक, बेटी के दहेज़ के भार |
भैया - बाबू गोर लगैत छी, बंद करू ई अत्याचार ||
रचनाकार- अभय दीपराज
Friday, March 18, 2011
अभय कान्त झा दीपराज के मैथिली ग़ज़ल -
ग़ज़ल
मोन प्रपंच पाप सँ दूषित, भाषण जन - समुदाय के |
कोना एहन नायक समाज में, परचम बनता न्याय के ||
कथनी में आदर्श, कलंकित करनी सँ नफरत के पात्र,
कोना समाज एहन व्यक्ति के, शत्रु कहय अन्याय के ||
किछु दिन संभव अछि चालाकी किन्तु अंत नहिं नीक एकर,
सदा अंत में हारव निश्चित, दानव के पर्याय के ||
धर्म, सत्य और न्याय-मनुजता, नैं हारल, नैं हारि सकत,
झूठ नैं कखनों बना सकत क्यों, अपन सबहक ऐहि राय के ||
धर्म अपन अछि - अपना कारण अपन वंश के मान बढय,
कहि नैं पावय क्यों कपूत के जननी अपना माय के ||
आदर्शक पथ पकडि चलू और करैत रहू कर्त्तव्य अपन,
लक्ष्य इहय बस सर्वोत्तम अछि, बुझू हमर अभिप्राय के ||
रचनाकार - अभय दीपराज
ग़ज़ल
मोन प्रपंच पाप सँ दूषित, भाषण जन - समुदाय के |
कोना एहन नायक समाज में, परचम बनता न्याय के ||
कथनी में आदर्श, कलंकित करनी सँ नफरत के पात्र,
कोना समाज एहन व्यक्ति के, शत्रु कहय अन्याय के ||
किछु दिन संभव अछि चालाकी किन्तु अंत नहिं नीक एकर,
सदा अंत में हारव निश्चित, दानव के पर्याय के ||
धर्म, सत्य और न्याय-मनुजता, नैं हारल, नैं हारि सकत,
झूठ नैं कखनों बना सकत क्यों, अपन सबहक ऐहि राय के ||
धर्म अपन अछि - अपना कारण अपन वंश के मान बढय,
कहि नैं पावय क्यों कपूत के जननी अपना माय के ||
आदर्शक पथ पकडि चलू और करैत रहू कर्त्तव्य अपन,
लक्ष्य इहय बस सर्वोत्तम अछि, बुझू हमर अभिप्राय के ||
रचनाकार - अभय दीपराज
Subscribe to:
Posts (Atom)