Wednesday, November 3, 2010

GHAZAL - 55

                ग़ज़ल

फिजाओं के किस्से हैं बाकी चमन में |
खारों  के  मेले  हैं  गुल  से  बदन  में  ||

लुटा हूँ,  मिटा हूँ,  मैं  एक  आदमी  हूँ,
ज़माने  ने  चेहरा  छुपाया  कफ़न  में ||

मेरे  दिल  के  कतरे,  मेरे  दोस्तों  ने,
भेजे   हैं  काँटों  के  दस्ते,   चमन  में ||

ये घर है,  ये दर है,  ये आँगन है मेरा,
बना  कब्र  मेरी, हुआ   हूँ   दफ़न   मैं ||

सूरत   से  हर  आदमी,   आदमी  है,
मगर एक कातिल,  छुपा हर बदन में ||

रचनाकार - अभय दीपराज

GHAZAL - 54

                 ग़ज़ल

आज दिल के सोज़-ओ-गम आंसुओं में ढहल गए |
ज़िन्दगी  के  मायने  जो  कल  थे  अब बदल गए ||

सर्द  है  ज़हान  बस !  ज़फा - ज़फ़ा - ज़फ़ा - ज़फ़ा,
जो  कल  वफ़ा  के  राग  के जूनून थे वो जल गए ||

कल  जो  लुट  रहा  था  दिल,  लूटता  है  ज़िन्दगी,
तमाद्दनें    बदल    गयीं,     रास्ते     बदल     गए ||

तर  थी  जो  निगाह  कल,   प्यार   की   शराब  से,
वो  ही  जाम  अब  ज़हर  का नाम बन बदल गए ||

बदल  गया   ज़हान   ये,  वक़्त  जो  बदल   गया,
गुजरे   पल   तो   संग-संग   रंग   भी  बदल गए ||

                
                  रचनाकार- अभय दीपराज

GHAZAL - 53

                      ग़ज़ल
जीने  के  काबिल  न  छोड़ा,  दोस्तों  ने  लूट  कर |
दिल  बिखर  कर  रह  गया  है,  ठोकरों से टूटकर ||

जब मिले तो हमनशीं, हमराज़ और हमदम कहा,
दो   घड़ी   के   बाद   वो  ही  चल  दिए  हैं  रूठकर ||

दर्द  है  दिल  में  मगर  दिल  बे-जुबां  है,  इसलिए,
कह  नहीं  सकते  कि-  कितना रो चुके हैं फूटकर ||

प्यार  की  हर  रौशनी,  अब  तो  मुझे  धोखा  लगे,
गम  ज़हां  ने  भर  दिया  है  यूँ  जिगर में कूटकर ||

क़ैद   जैसी   एक   सज़ा   है   ज़िन्दगी   मेरे   लिए,
जां  ये  मेरी  जिससे  जाना   चाहती   है   छूटकर ||

                 रचनाकार - अभय दीपराज

GHAZAL - 52

                   ग़ज़ल

मेरे  बाग़  के  अमन  को  किसकी  नज़र ? लगी |
गुलज़ार  दर - चमन   को  किसकी  नज़र  लगी ||

घायल   हुयी   है   रात   से   कैसे ?   मेरी   सहर,
गुलशन  को,  गुल को क्यों न मेरी ? ये उम्र लगी ||

शैतान  बन  गया  ये   मेरा   खून   किस ?   तरह,
मेरी   डगर  ही  गम  को  क्यों ?   रहगुज़र  लगी ||

अफ़साना क्यों ? बनी है मेरी हसरत-ए-रिफ़अत,
मेरे  ही  दिल  की  बात  उन्हें  क्यों ?  ज़हर लगी ||

हश्ती  है  रक्शे-बिस्मिल,   हैरान  साज़-ए-दिल,
मेरे  बाग़  की  खिज़ां  को  किस्से ?  खबर  लगी ||

                 रचनाकार- अभय दीपराज

GHAZAL - 51

   ग़ज़ल

जो  दुश्मनी  का  साज़  बनके  गूंजते  रहें |
हम   बे-जुबां   नहीं   कि  उन्हें  पूजते  रहें ||

तुमने  अगर  ये  आग   लगाई  है  बाग़  में,
है  फ़र्ज़  ये    हमारा   कि  हम  जूझते  रहें ||

मजबूर  हैं  हमें  भी  गवारा  ये  अब  नहीं,
कि  तुमको  गले   लगाए   यूँ  ही डूबते रहें ||

ये  प्यार  था  कि  हमने ये ज़ुल्म सह लिया,
मुमकिन  नहीं  ये  और  कि  हम टूटते रहें ||

आखिर है जीत सच की, ये सच है एक सच,
हमें  चाहिए  कि  सच  के  कदम चूमते रहें ||

           रचनाकार - अभय दीपराज