ग़ज़ल
फिजाओं के किस्से हैं बाकी चमन में |
खारों के मेले हैं गुल से बदन में ||
लुटा हूँ, मिटा हूँ, मैं एक आदमी हूँ,
ज़माने ने चेहरा छुपाया कफ़न में ||
मेरे दिल के कतरे, मेरे दोस्तों ने,
भेजे हैं काँटों के दस्ते, चमन में ||
ये घर है, ये दर है, ये आँगन है मेरा,
बना कब्र मेरी, हुआ हूँ दफ़न मैं ||
सूरत से हर आदमी, आदमी है,
मगर एक कातिल, छुपा हर बदन में ||
रचनाकार - अभय दीपराज
Wednesday, November 3, 2010
GHAZAL - 54
ग़ज़ल
आज दिल के सोज़-ओ-गम आंसुओं में ढहल गए |
ज़िन्दगी के मायने जो कल थे अब बदल गए ||
सर्द है ज़हान बस ! ज़फा - ज़फ़ा - ज़फ़ा - ज़फ़ा,
जो कल वफ़ा के राग के जूनून थे वो जल गए ||
कल जो लुट रहा था दिल, लूटता है ज़िन्दगी,
तमाद्दनें बदल गयीं, रास्ते बदल गए ||
तर थी जो निगाह कल, प्यार की शराब से,
वो ही जाम अब ज़हर का नाम बन बदल गए ||
बदल गया ज़हान ये, वक़्त जो बदल गया,
गुजरे पल तो संग-संग रंग भी बदल गए ||
रचनाकार- अभय दीपराज
आज दिल के सोज़-ओ-गम आंसुओं में ढहल गए |
ज़िन्दगी के मायने जो कल थे अब बदल गए ||
सर्द है ज़हान बस ! ज़फा - ज़फ़ा - ज़फ़ा - ज़फ़ा,
जो कल वफ़ा के राग के जूनून थे वो जल गए ||
कल जो लुट रहा था दिल, लूटता है ज़िन्दगी,
तमाद्दनें बदल गयीं, रास्ते बदल गए ||
तर थी जो निगाह कल, प्यार की शराब से,
वो ही जाम अब ज़हर का नाम बन बदल गए ||
बदल गया ज़हान ये, वक़्त जो बदल गया,
गुजरे पल तो संग-संग रंग भी बदल गए ||
रचनाकार- अभय दीपराज
GHAZAL - 53
ग़ज़ल
जीने के काबिल न छोड़ा, दोस्तों ने लूट कर |
दिल बिखर कर रह गया है, ठोकरों से टूटकर ||
जब मिले तो हमनशीं, हमराज़ और हमदम कहा,
दो घड़ी के बाद वो ही चल दिए हैं रूठकर ||
दर्द है दिल में मगर दिल बे-जुबां है, इसलिए,
कह नहीं सकते कि- कितना रो चुके हैं फूटकर ||
प्यार की हर रौशनी, अब तो मुझे धोखा लगे,
गम ज़हां ने भर दिया है यूँ जिगर में कूटकर ||
क़ैद जैसी एक सज़ा है ज़िन्दगी मेरे लिए,
जां ये मेरी जिससे जाना चाहती है छूटकर ||
रचनाकार - अभय दीपराज
जीने के काबिल न छोड़ा, दोस्तों ने लूट कर |
दिल बिखर कर रह गया है, ठोकरों से टूटकर ||
जब मिले तो हमनशीं, हमराज़ और हमदम कहा,
दो घड़ी के बाद वो ही चल दिए हैं रूठकर ||
दर्द है दिल में मगर दिल बे-जुबां है, इसलिए,
कह नहीं सकते कि- कितना रो चुके हैं फूटकर ||
प्यार की हर रौशनी, अब तो मुझे धोखा लगे,
गम ज़हां ने भर दिया है यूँ जिगर में कूटकर ||
क़ैद जैसी एक सज़ा है ज़िन्दगी मेरे लिए,
जां ये मेरी जिससे जाना चाहती है छूटकर ||
रचनाकार - अभय दीपराज
GHAZAL - 52
ग़ज़ल
मेरे बाग़ के अमन को किसकी नज़र ? लगी |
गुलज़ार दर - चमन को किसकी नज़र लगी ||
घायल हुयी है रात से कैसे ? मेरी सहर,
गुलशन को, गुल को क्यों न मेरी ? ये उम्र लगी ||
शैतान बन गया ये मेरा खून किस ? तरह,
मेरी डगर ही गम को क्यों ? रहगुज़र लगी ||
अफ़साना क्यों ? बनी है मेरी हसरत-ए-रिफ़अत,
मेरे ही दिल की बात उन्हें क्यों ? ज़हर लगी ||
हश्ती है रक्शे-बिस्मिल, हैरान साज़-ए-दिल,
मेरे बाग़ की खिज़ां को किस्से ? खबर लगी ||
रचनाकार- अभय दीपराज
मेरे बाग़ के अमन को किसकी नज़र ? लगी |
गुलज़ार दर - चमन को किसकी नज़र लगी ||
घायल हुयी है रात से कैसे ? मेरी सहर,
गुलशन को, गुल को क्यों न मेरी ? ये उम्र लगी ||
शैतान बन गया ये मेरा खून किस ? तरह,
मेरी डगर ही गम को क्यों ? रहगुज़र लगी ||
अफ़साना क्यों ? बनी है मेरी हसरत-ए-रिफ़अत,
मेरे ही दिल की बात उन्हें क्यों ? ज़हर लगी ||
हश्ती है रक्शे-बिस्मिल, हैरान साज़-ए-दिल,
मेरे बाग़ की खिज़ां को किस्से ? खबर लगी ||
रचनाकार- अभय दीपराज
GHAZAL - 51
ग़ज़ल
जो दुश्मनी का साज़ बनके गूंजते रहें |
हम बे-जुबां नहीं कि उन्हें पूजते रहें ||
तुमने अगर ये आग लगाई है बाग़ में,
है फ़र्ज़ ये हमारा कि हम जूझते रहें ||
मजबूर हैं हमें भी गवारा ये अब नहीं,
कि तुमको गले लगाए यूँ ही डूबते रहें ||
ये प्यार था कि हमने ये ज़ुल्म सह लिया,
मुमकिन नहीं ये और कि हम टूटते रहें ||
आखिर है जीत सच की, ये सच है एक सच,
हमें चाहिए कि सच के कदम चूमते रहें ||
रचनाकार - अभय दीपराज
जो दुश्मनी का साज़ बनके गूंजते रहें |
हम बे-जुबां नहीं कि उन्हें पूजते रहें ||
तुमने अगर ये आग लगाई है बाग़ में,
है फ़र्ज़ ये हमारा कि हम जूझते रहें ||
मजबूर हैं हमें भी गवारा ये अब नहीं,
कि तुमको गले लगाए यूँ ही डूबते रहें ||
ये प्यार था कि हमने ये ज़ुल्म सह लिया,
मुमकिन नहीं ये और कि हम टूटते रहें ||
आखिर है जीत सच की, ये सच है एक सच,
हमें चाहिए कि सच के कदम चूमते रहें ||
रचनाकार - अभय दीपराज
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