Sunday, October 24, 2010

GHAZAL - 20

                         ग़ज़ल

ये  दुनिया  तुझको  गम  देगी,  इंसान  तुझे  सहना होगा |
ये   जो   चाहे   बनना   होगा,  ये  जब  चाहे  ढहना होगा ||

ये  जीवन  तेरा  या  मेरा,  तोहफा  है  दुनिया  वालों  का,
इसकी  लहरों  में  खोकर  ही,  हरदम तुझको बहना होगा ||

है  फ़र्ज़  तेरा  उनको  सुनना,  ये  ही  बस  तेरी  नियति है,
दुनिया  तो  बस  वो  बोलेगी,  जो भी उसको कहना होगा ||

एक  झूठ  गुमां  है  तेरा  ये,  तू  गर  खुद को आज़ाद कहे,
तू  एक  रहन  है  रिश्तों  में,  बँधकर  तुझको रहना होगा ||

जीने  की  सच्ची राह  यही,  हर गम को तू एक दीप बना,
तू दुनिया की खातिर मिटकर ही, दुनिया का गहना होगा ||

                          रचनाकार - अभय दीपराज

GHAZAL - 19

                         ग़ज़ल

एक   पेड़   के   पत्ते-पते,   आपस   में   ही   झगड़   रहे   हैं |
पागल  अपने  ही  विनाश  के,  पथ को बढ़ कर पकड़ रहे हैं ||

सब अपनी-अपनी टहनी  को,  अपना-अपना  कह-कह  कर,
पगले जड़ को अनदेखा कर,  अपनी  मौत  को  जकड रहे हैं ||

जिस आश्रय पर जीवन इनका, टिका हुआ और फूल रहा है,
मूरख  उसको  काट  रहे  है,  और   बुद्धि  पर  अकड़  रहे  हैं ||

बौराए   इन   बेचारों   की,   अक्ल   देख   रोना   आता  है,
आग  हाथ  पर   सुलगाने को,   ये  हथेलियाँ  रगड़  रहे  हैं ||

मित्रों, ये फ़रियाद मेरी तुम, सुन लो, इस विप्लव को रोको,
ये   बादल  हैं  महाप्रलय  के,  जो  जग  पर  यूँ घुमड़ रहे हैं ||


                           रचनाकार- अभय दीपराज

GHAZAL - 18

                     ग़ज़ल

खून  में  डूबा  है  इन्सां,  हाथ   में   तलवार   है |
एक   पागलघर   बना   यूँ,  आज  का  संसार है ||

धर्म  का  ये अर्थ है अब,  है ये मज़हब की नज़र,
ये  तो  अब  गद्दी नशीनी   के  लिए  हथियार है ||

आज  हम  औलाद  पैदा  कर  रहे हैं,   इसलिए -
क्योंकि -   ये रंगीन दुनिया,  माँस का बाज़ार है ||

पेट   भरने   के   लिए   हैं,  आज   रिश्तेदारियाँ,
हर  कोई  रिश्ता  यहाँ पर,  आज एक व्यापार है ||

मैं  भी  हूँ  शायद  फरेबी,  और  फरेबी  आप  हैं,
झूठ है ये- मुझको तुमसे, तुमको मुझसे प्यार है ||

जा रही है ये नज़र, इस छोर से, जिस छोर तक,
भूल कर कर्त्तव्य, सबको याद बस,  अधिकार  है ||

आज आदम गर कहीं तू है ?  तो आकर देख ले,
क्या तेरे अरमान थे ? और क्या तेरा परिवार  है ||


              रचनाकार - अभय दीपराज 

GHAZAL - 17

                      ग़ज़ल

आओ,  फिर  आवाज़  दें  हम,  धर्म के पुरुषार्थ को |
फिर  से  धरती  पर  बुलायें, सत्य को, परमार्थ को ||

आज  धरती  पर ग्रहण है,  पाप  और  अन्याय का,
आओ फिर दिल से पुकारें,  कृष्ण को और पार्थ को ||

रात   भर   का  है  अन्धेरा,   पाप का साम्राज्य ये ,
याद रख्खो,  मत भुलाओ,  इस अमर  शास्त्रार्थ को ||

हम  मनुज  हैं  और  मनुज  रहना  हमारा  धर्म  है,
आओ,  हम  विश्वास  से,  दोहरायें  इस भावार्थ को ||

मत  कहो,   ये  धर्म  और  ये  सत्य अब निःसार है,
आत्माओं   में   उतारें,  आओ,  इस  दिव्यार्थ   को ||

विश्व   के   कल्याण  की,  आओ,  करें हम कामना,
आओ,  होली  में  जला  दें, पाप को और स्वार्थ को ||

जाग  जाये  यदि  मनुजता,  विश्व  ये  कुंदन  बने,
आओ गायें, मिल के इस पावन-अमर चरितार्थ को ||

                 
                   रचनाकार - अभय दीपराज