ग़ज़ल
एक पेड़ के पत्ते-पते, आपस में ही झगड़ रहे हैं |
पागल अपने ही विनाश के, पथ को बढ़ कर पकड़ रहे हैं ||
सब अपनी-अपनी टहनी को, अपना-अपना कह-कह कर,
पगले जड़ को अनदेखा कर, अपनी मौत को जकड रहे हैं ||
जिस आश्रय पर जीवन इनका, टिका हुआ और फूल रहा है,
मूरख उसको काट रहे है, और बुद्धि पर अकड़ रहे हैं ||
बौराए इन बेचारों की, अक्ल देख रोना आता है,
आग हाथ पर सुलगाने को, ये हथेलियाँ रगड़ रहे हैं ||
मित्रों, ये फ़रियाद मेरी तुम, सुन लो, इस विप्लव को रोको,
ये बादल हैं महाप्रलय के, जो जग पर यूँ घुमड़ रहे हैं ||
रचनाकार- अभय दीपराज
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