Sunday, October 24, 2010

GHAZAL - 19

                         ग़ज़ल

एक   पेड़   के   पत्ते-पते,   आपस   में   ही   झगड़   रहे   हैं |
पागल  अपने  ही  विनाश  के,  पथ को बढ़ कर पकड़ रहे हैं ||

सब अपनी-अपनी टहनी  को,  अपना-अपना  कह-कह  कर,
पगले जड़ को अनदेखा कर,  अपनी  मौत  को  जकड रहे हैं ||

जिस आश्रय पर जीवन इनका, टिका हुआ और फूल रहा है,
मूरख  उसको  काट  रहे  है,  और   बुद्धि  पर  अकड़  रहे  हैं ||

बौराए   इन   बेचारों   की,   अक्ल   देख   रोना   आता  है,
आग  हाथ  पर   सुलगाने को,   ये  हथेलियाँ  रगड़  रहे  हैं ||

मित्रों, ये फ़रियाद मेरी तुम, सुन लो, इस विप्लव को रोको,
ये   बादल  हैं  महाप्रलय  के,  जो  जग  पर  यूँ घुमड़ रहे हैं ||


                           रचनाकार- अभय दीपराज

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