Sunday, October 17, 2010

GAZAL - 2


                        ग़ज़ल

चक्र प्रगति का ऐसा घूमा v जगत  आज  श्मशान   हुआ है |
ढूंढ - ढूंढ   कर   यहाँ   बसेरा  धर्म  आज हलकान   हुआ है ||

कहाँ न्याय का मंदिर, मंदिर ? सेवा  भाव  कहाँ अब सेवा ?
ख़ूनी   पंजों   के   नाखूनों   पर  हमको  अभिमान हुआ  है ||

अब   विश्वास  विषैला  होकर,  बन विश्वास-घात मिलता है,
मानव   मन   ही,  मानवता   के  भावों से अनजान हुआ है ||


दुराचार   अब   सदाचार   बन,  मंचों   से   हुंकार   रहा है,
पौरुष  अपना  त्याग  नपुंसक,   नवयुग का इंसान हुआ है ||

धरती,  अम्बर   और   सागर   का   बंटवारा   करते - करते,
हवस  स्वार्थ  का  बढा और मन  चिंतन  से वीरान हुआ है ||

भूल  गए  कर्त्तव्य  आज  हम,  कुल   का   गौरव  बनने  का,
वो   संतान  बने  हम  जिनसे  हर  माँ का अपमान हुआ है ||

                      रचनाकार - अभय दीपराज







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