ग़ज़ल
आजकल मासूम इन्सां, एक परिंदा बन गया |
जिसका है मज़बूत पंजा, वो दरिंदा बन गया ||
जिसका दामन भर के भेजा था खुदा ने अक्ल से,
अक्ल से इन्सान वो बिलकुल ही अंधा बन गया ||
लुट रहा है आदमी खुद, आदमी की ज़ात से,
खून करना आजकल व्यापार- धंधा बन गया ||
आजकल धन धर्म है, ईमान है, आराध्य है,
धर्म और सिद्धांत तो अब एक फन्दा बन गया ||
ठोकरें खाती है गलियों में यहाँ इंसानियत,
न्याय की आराधना अब एक निंदा बन गया ||
बन के पैगम्बर ज़मीं पर कल कदम जिसने रखा,
आज वो शैतान का मज़बूत कंधा बन गया ||
खुद, खुदा ने कर के पैदा जिसको देखा फख्र से ,
आदमी वो अब उसी का, शत्रु बन्दा बन गया||
आज शर्मिन्दा खुदा खुद होगा इस अपराध पर,
फूल उसका, शूल क्या उससे भी गंदा बन गया ||
रचनाकार- अभय दीपराज
Sunday, October 17, 2010
GAZAL - 3
ग़ज़ल
कभी - कभी इन्सां अपनी भी सूरत से डर जाता है |
कुछ खुशियाँ ऐसी होती हैं जिनसे ये दिल भर जाता है ||
कुछ फूलों की रौनक भी आँखों को यूँ पथरा देती हैं,
खुद ही जिसके गम से इन्सां दिल, जीते जी मर जाता है ||
कुछ घड़ियाँ ऐसी होती हैं, कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं,
जिनके न होने से ज्यादा, होने का गम तड़पाता है ||
शायद वो ये सोचेंगे- उनका प्यार मुझे गम दे ता है,
झूठ है ये पर ये भी सच है- दिल उनसे कतराता है ||
चाहत भी एक मजबूरी है, नफरत भी एक मजबूरी है,
दूरी ही शायद मिलने की खुशियों को और बढाता है ||
दिल के गमगीं या खुश होने का चेहरे से एक नाता है,
जो रंगत बनकर चेहरे की, जीवन का हाल बताता है ||
जीवन जीने और खुश रहने की, ख्वाहिश सबमें होती है,
पर कुछ लोगों को ये जीवन, हद से अधिक सताता है ||
इन्सां होना बड़ी सजा है, इन्सां न होने से बढ़कर,
लेकिन , ये वो दर्द है जिसका होना मुझे सुहाता है ||
रचनाकार - अभय दीपराज
कभी - कभी इन्सां अपनी भी सूरत से डर जाता है |
कुछ खुशियाँ ऐसी होती हैं जिनसे ये दिल भर जाता है ||
कुछ फूलों की रौनक भी आँखों को यूँ पथरा देती हैं,
खुद ही जिसके गम से इन्सां दिल, जीते जी मर जाता है ||
कुछ घड़ियाँ ऐसी होती हैं, कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं,
जिनके न होने से ज्यादा, होने का गम तड़पाता है ||
शायद वो ये सोचेंगे- उनका प्यार मुझे गम दे ता है,
झूठ है ये पर ये भी सच है- दिल उनसे कतराता है ||
चाहत भी एक मजबूरी है, नफरत भी एक मजबूरी है,
दूरी ही शायद मिलने की खुशियों को और बढाता है ||
दिल के गमगीं या खुश होने का चेहरे से एक नाता है,
जो रंगत बनकर चेहरे की, जीवन का हाल बताता है ||
जीवन जीने और खुश रहने की, ख्वाहिश सबमें होती है,
पर कुछ लोगों को ये जीवन, हद से अधिक सताता है ||
इन्सां होना बड़ी सजा है, इन्सां न होने से बढ़कर,
लेकिन , ये वो दर्द है जिसका होना मुझे सुहाता है ||
रचनाकार - अभय दीपराज
GAZAL - 2
ग़ज़ल
चक्र प्रगति का ऐसा घूमा v जगत आज श्मशान हुआ है |
ढूंढ - ढूंढ कर यहाँ बसेरा धर्म आज हलकान हुआ है ||
कहाँ न्याय का मंदिर, मंदिर ? सेवा भाव कहाँ अब सेवा ?
ख़ूनी पंजों के नाखूनों पर हमको अभिमान हुआ है ||
अब विश्वास विषैला होकर, बन विश्वास-घात मिलता है,
मानव मन ही, मानवता के भावों से अनजान हुआ है ||
दुराचार अब सदाचार बन, मंचों से हुंकार रहा है,
पौरुष अपना त्याग नपुंसक, नवयुग का इंसान हुआ है ||
धरती, अम्बर और सागर का बंटवारा करते - करते,
हवस स्वार्थ का बढा और मन चिंतन से वीरान हुआ है ||
भूल गए कर्त्तव्य आज हम, कुल का गौरव बनने का,
वो संतान बने हम जिनसे हर माँ का अपमान हुआ है ||
रचनाकार - अभय दीपराज
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