ग़ज़ल
गिर गया है आदमी यूँ आज अपनी ज़ात से |
फिर रहा है हर कदम पर, वो ज़ुबां से, बात से ||
सत्य से अब हो गयी है, शत्रुता इंसान की,
इसलिए, वो वार इस पर कर रहा है, घात से ||
सच, परीक्षा की घड़ी है, आजकल ये धर्म की,
लड़ रहा है धर्म जिसमें, आज काली रात से ||
झूठ से और पाप से है, प्यार यूँ इंसान को,
गूँज युग को दे रहा वो, अब इन्हीं नगमात से ||
विश्वविजयी मनुज कल का, यूँ नपुंसक हो गया,
लग रहा है भय उसे अब, युद्ध के हालात से ||
आज की यह शान्ति, कल की क्रांति का संकेत है,
जन्म जो लेगी, पराजित पक्ष के प्रतिघात से ||
रचनाकार - अभय दीपराज
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