ग़ज़ल
दुनिया मुझसे कतराती है, शायद मैं पागल लगता हूँ |
बच कर वो मुझ से चलते हैं, मैं उनको काजल लगता हूँ ||
अक्सर लोगों ने मुझको यूँ , नफरत से भरकर देखा है ,
मैं सावन की घटा नहीं हूँ , बे - मौसम बादल लगता हूँ ||
मेरे दिल के कुछ ज़ख्मों ने, मुझको लहूलुहान किया है,
इसीलिये मैं कुछ उदास हूँ , और रोता सा कल लगता हूँ ||
मुझे समझना और समझाना, बहुत बोझ सा लगता है अब,
क्योंकि इन दोनों रूपों में , मैं एक झूठा छल लगता हूँ ||
मेरी ये चुभती खामोशी, उस चुभते गम से बेहतर है,
जिसमें मैं गर्जन करता सा मैला - खारा जल लगता हूँ ||
तुम भी मुझ से बच कर रहना, मैं एक ज़हरीला कतरा हूँ ,
इसीलिये तो मैं दुनिया को, एक कड़वा सा फल लगता हूँ ||
रचनाकार - अभय दीपराज
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