Wednesday, October 20, 2010

GHAZAL - 7

                       ग़ज़ल

जाने  क्या , ये  हो  गया  है, आजकल   इंसान   को |
गलियां   देता   है   वो  माँ-बाप   और  भगवान्  को ||

सर्जना   और  सर्जकों  को   कर   तिरस्कृत   आदमी,
पूज्य  कहकर   पूजता  है   आज   वह   शैतान   को ||

छुद्रताओं   से   ढँकी  है   मानसिकता   इस   तरह,
गर्व  हम  कहने  लगे  हैं  आजकल   अभिमान   को ||

क्रांति  कहकर  के  घृणा  का  बीज  बोते  फिर  रहे,
व्यर्थ  अब  हम  कह  रहे  हैं - धर्म  और  ईमान  को ||

न्याय और संस्कार, संस्कृति, देश की क्या बात अब,
बेचते  है  हम  तो  सिक्कों   के   लिए   संतान   को ||

योग्यता  और  योग्य  से  हमको  घृणा  है,  डाह  है, 

मान मिलता आजकल बस , शक्ति और धनवान को ||

शर्म  को   हम   इस  तरह  से  खो  चुके हैं आजकल,
भा
ट  बनकर  गा  रहे  हैं  खुद  के  ही  गुणगान  को ||           

रह  गया  है  आज  बस,  इंसान,  तन   से   आदमी,
 त्याग  डाला  शेष  हमने  अपनी  हर  पहचान  को ||


                   रचनाकार- अभय दीपराज

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