ग़ज़ल
जाने क्या , ये हो गया है, आजकल इंसान को |
गलियां देता है वो माँ-बाप और भगवान् को ||
सर्जना और सर्जकों को कर तिरस्कृत आदमी,
पूज्य कहकर पूजता है आज वह शैतान को ||
छुद्रताओं से ढँकी है मानसिकता इस तरह,
गर्व हम कहने लगे हैं आजकल अभिमान को ||
क्रांति कहकर के घृणा का बीज बोते फिर रहे,
व्यर्थ अब हम कह रहे हैं - धर्म और ईमान को ||
न्याय और संस्कार, संस्कृति, देश की क्या बात अब,
बेचते है हम तो सिक्कों के लिए संतान को ||
योग्यता और योग्य से हमको घृणा है, डाह है,
मान मिलता आजकल बस , शक्ति और धनवान को ||
शर्म को हम इस तरह से खो चुके हैं आजकल,
भाट बनकर गा रहे हैं खुद के ही गुणगान को ||
रह गया है आज बस, इंसान, तन से आदमी,
त्याग डाला शेष हमने अपनी हर पहचान को ||
रचनाकार- अभय दीपराज
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