ग़ज़ल
गुमराह होता जा रहा इस प्रकृति का सतवंत है |
मर रही इंसानियत, हैवानियत बे-अंत है ||
हो रही निर्वस्त्र, मानवता की सीमा द्रौपदी,
युद्ध का आसार ही, हर ओर अब जीवंत है ||
हैं अधिकतर बाग़ अब अन्याय के अधिकार में,
बन गया जो आज अपना, पूज्यवर भगवंत है ||
एक से सौ, जुर्म का ज्वर संक्रमण बन बढ़ रहा,
राम भी अदृश्य हैं, अदृश्य ही हनुमंत है ||
नवजात शिशुओं का हुआ प्रारंभ भी जीवन नहीं,
और गड़ रहा छाती में उनके मांसभक्षी दन्त है ||
रोज व्रत खुलता है जिसका, गर्म-बहते खून से,
आज के युग में वही, कहला रहा अब संत है ||
बदनुमा और व्यर्थ सी अब हो गयी है पद्मजा ,
हर किसी का लक्ष्य, बनना, लक्ष्मी का कन्त है ||
आज फिर युग आ गया है, एक ऐसे मोड़ पर,
जिसके आगे है प्रलय और सभ्यता का अंत है ||
रचनाकार - अभय दीपराज
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