Wednesday, October 20, 2010

GHAZAL - 8

                            ग़ज़ल

गुमराह होता जा रहा इस प्रकृति का सतवंत है |
मर  रही   इंसानियत,  हैवानियत   बे-अंत   है ||

हो  रही  निर्वस्त्र,  मानवता  की  सीमा  द्रौपदी,
युद्ध का  आसार  ही,  हर  ओर  अब  जीवंत  है ||

हैं अधिकतर बाग़ अब अन्याय के अधिकार में,
बन गया जो आज अपना,  पूज्यवर भगवंत है ||

एक से सौ, जुर्म का ज्वर संक्रमण बन बढ़ रहा,
राम  भी  अदृश्य  हैं,  अदृश्य   ही   हनुमंत   है ||

नवजात शिशुओं का हुआ प्रारंभ भी जीवन नहीं,
और गड़ रहा छाती में उनके मांसभक्षी दन्त है ||

रोज व्रत खुलता है जिसका, गर्म-बहते खून से,
आज  के  युग  में  वही, कहला रहा अब संत है ||

बदनुमा  और  व्यर्थ  सी  अब  हो गयी है पद्मजा ,
हर किसी का लक्ष्य, बनना, लक्ष्मी का कन्त है ||

आज  फिर  युग  आ  गया  है, एक ऐसे मोड़ पर,
जिसके आगे है प्रलय  और सभ्यता का अंत है ||


                      रचनाकार - अभय दीपराज 

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