ग़ज़ल
आज आशा के सितारे, छिप गए आकाश में |
घुट रही है ज़िन्दगी की साँस, सड़ती लाश में ||
आदमी पर पाशविकता का शिकंजा यूँ कसा,
जिस तरह अजगर जकड़ता है किसी को पाश में ||
हँस रहे हैं हम छिपाने के लिए गम - दर्द को,
किन्तु ये गम घुल गया है हर किसी उच्छवास में ||
हीन गुरुता से हुए गुरु, चोर के सिर ताज है,
आज रक्षक बन के भक्षक, डस रहे आवास में ||
बेच कर इंसानियत हम, हो गए यूँ जानवर,
खून का व्यापार है, हर वास और अधिवास में ||
दोस्ती में दुश्मनी से, आज खतरा बढ़ गया,
अब तो बस केवल ज़हर है, हास और परिहास में ||
हमने चाहा देव बनना, किन्तु दानव बन गए,
घुन लगा यूँ आदमी की आश और अभिलाष में ||
फिर वही युग आ गया है, धर्म के एक युद्ध का,
राज्य है धृतराष्ट्र का और धर्म है वनवास में ||
सत्यता और धर्म ही बस, आज तो हथियार है,
जो हमें ले जाएगा अब, नाश से अ-विनाश में ||
रचनाकार - अभय दीपराज
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