Thursday, November 4, 2010

GHAZAL - 56

                       ग़ज़ल
लम्हा-लम्हा  कतरा-कतरा  बीतता  है आदमी |
रोज़  खुद  से  हारता  और  जीतता  है  आदमी ||

नाखुदा  की  जुश्तजू  में,  आंसुओं  की  भीड़ में,
उम्र  एक राह   बनकर    भींगता    है    आदमी ||

घाव  मिलते   हैं   हज़ारों    और    रिश्तेदारियाँ,
ज़िन्दगी  की  खोज  में जिन्हें चीरता है आदमी ||

लाल  पानी  की  नदी  पर  बाँध  है  ज़िंदा  बदन,
नाम  हसरत  की  हज़ारों  भीड़  का  है  आदमी ||

ज़िन्दगी की लाश लावारिश भी है, बे-कफ्न भी,
एक  सहरां  और  धुंधलके  का  पता  है आदमी ||

               रचनाकार - अभय दीपराज

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