ग़ज़ल
लम्हा-लम्हा कतरा-कतरा बीतता है आदमी |
रोज़ खुद से हारता और जीतता है आदमी ||
नाखुदा की जुश्तजू में, आंसुओं की भीड़ में,
उम्र एक राह बनकर भींगता है आदमी ||
घाव मिलते हैं हज़ारों और रिश्तेदारियाँ,
ज़िन्दगी की खोज में जिन्हें चीरता है आदमी ||
लाल पानी की नदी पर बाँध है ज़िंदा बदन,
नाम हसरत की हज़ारों भीड़ का है आदमी ||
ज़िन्दगी की लाश लावारिश भी है, बे-कफ्न भी,
एक सहरां और धुंधलके का पता है आदमी ||
रचनाकार - अभय दीपराज
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