Wednesday, November 3, 2010

GHAZAL - 51

   ग़ज़ल

जो  दुश्मनी  का  साज़  बनके  गूंजते  रहें |
हम   बे-जुबां   नहीं   कि  उन्हें  पूजते  रहें ||

तुमने  अगर  ये  आग   लगाई  है  बाग़  में,
है  फ़र्ज़  ये    हमारा   कि  हम  जूझते  रहें ||

मजबूर  हैं  हमें  भी  गवारा  ये  अब  नहीं,
कि  तुमको  गले   लगाए   यूँ  ही डूबते रहें ||

ये  प्यार  था  कि  हमने ये ज़ुल्म सह लिया,
मुमकिन  नहीं  ये  और  कि  हम टूटते रहें ||

आखिर है जीत सच की, ये सच है एक सच,
हमें  चाहिए  कि  सच  के  कदम चूमते रहें ||

           रचनाकार - अभय दीपराज

No comments:

Post a Comment