ग़ज़ल
जो दुश्मनी का साज़ बनके गूंजते रहें |
हम बे-जुबां नहीं कि उन्हें पूजते रहें ||
तुमने अगर ये आग लगाई है बाग़ में,
है फ़र्ज़ ये हमारा कि हम जूझते रहें ||
मजबूर हैं हमें भी गवारा ये अब नहीं,
कि तुमको गले लगाए यूँ ही डूबते रहें ||
ये प्यार था कि हमने ये ज़ुल्म सह लिया,
मुमकिन नहीं ये और कि हम टूटते रहें ||
आखिर है जीत सच की, ये सच है एक सच,
हमें चाहिए कि सच के कदम चूमते रहें ||
रचनाकार - अभय दीपराज
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