ग़ज़ल
ये दुनिया तुझको गम देगी, इंसान तुझे सहना होगा |
ये जो चाहे बनना होगा, ये जब चाहे ढहना होगा ||
ये जीवन तेरा या मेरा, तोहफा है दुनिया वालों का,
इसकी लहरों में खोकर ही, हरदम तुझको बहना होगा ||
है फ़र्ज़ तेरा उनको सुनना, ये ही बस तेरी नियति है,
दुनिया तो बस वो बोलेगी, जो भी उसको कहना होगा ||
एक झूठ गुमां है तेरा ये, तू गर खुद को आज़ाद कहे,
तू एक रहन है रिश्तों में, बँधकर तुझको रहना होगा ||
जीने की सच्ची राह यही, हर गम को तू एक दीप बना,
तू दुनिया की खातिर मिटकर ही, दुनिया का गहना होगा ||
रचनाकार - अभय दीपराज
Sunday, October 24, 2010
GHAZAL - 19
ग़ज़ल
एक पेड़ के पत्ते-पते, आपस में ही झगड़ रहे हैं |
पागल अपने ही विनाश के, पथ को बढ़ कर पकड़ रहे हैं ||
सब अपनी-अपनी टहनी को, अपना-अपना कह-कह कर,
पगले जड़ को अनदेखा कर, अपनी मौत को जकड रहे हैं ||
जिस आश्रय पर जीवन इनका, टिका हुआ और फूल रहा है,
मूरख उसको काट रहे है, और बुद्धि पर अकड़ रहे हैं ||
बौराए इन बेचारों की, अक्ल देख रोना आता है,
आग हाथ पर सुलगाने को, ये हथेलियाँ रगड़ रहे हैं ||
मित्रों, ये फ़रियाद मेरी तुम, सुन लो, इस विप्लव को रोको,
ये बादल हैं महाप्रलय के, जो जग पर यूँ घुमड़ रहे हैं ||
रचनाकार- अभय दीपराज
एक पेड़ के पत्ते-पते, आपस में ही झगड़ रहे हैं |
पागल अपने ही विनाश के, पथ को बढ़ कर पकड़ रहे हैं ||
सब अपनी-अपनी टहनी को, अपना-अपना कह-कह कर,
पगले जड़ को अनदेखा कर, अपनी मौत को जकड रहे हैं ||
जिस आश्रय पर जीवन इनका, टिका हुआ और फूल रहा है,
मूरख उसको काट रहे है, और बुद्धि पर अकड़ रहे हैं ||
बौराए इन बेचारों की, अक्ल देख रोना आता है,
आग हाथ पर सुलगाने को, ये हथेलियाँ रगड़ रहे हैं ||
मित्रों, ये फ़रियाद मेरी तुम, सुन लो, इस विप्लव को रोको,
ये बादल हैं महाप्रलय के, जो जग पर यूँ घुमड़ रहे हैं ||
रचनाकार- अभय दीपराज
GHAZAL - 18
ग़ज़ल
खून में डूबा है इन्सां, हाथ में तलवार है |
एक पागलघर बना यूँ, आज का संसार है ||
धर्म का ये अर्थ है अब, है ये मज़हब की नज़र,
ये तो अब गद्दी नशीनी के लिए हथियार है ||
आज हम औलाद पैदा कर रहे हैं, इसलिए -
क्योंकि - ये रंगीन दुनिया, माँस का बाज़ार है ||
पेट भरने के लिए हैं, आज रिश्तेदारियाँ,
हर कोई रिश्ता यहाँ पर, आज एक व्यापार है ||
मैं भी हूँ शायद फरेबी, और फरेबी आप हैं,
झूठ है ये- मुझको तुमसे, तुमको मुझसे प्यार है ||
जा रही है ये नज़र, इस छोर से, जिस छोर तक,
भूल कर कर्त्तव्य, सबको याद बस, अधिकार है ||
आज आदम गर कहीं तू है ? तो आकर देख ले,
क्या तेरे अरमान थे ? और क्या तेरा परिवार है ||
रचनाकार - अभय दीपराज
खून में डूबा है इन्सां, हाथ में तलवार है |
एक पागलघर बना यूँ, आज का संसार है ||
धर्म का ये अर्थ है अब, है ये मज़हब की नज़र,
ये तो अब गद्दी नशीनी के लिए हथियार है ||
आज हम औलाद पैदा कर रहे हैं, इसलिए -
क्योंकि - ये रंगीन दुनिया, माँस का बाज़ार है ||
पेट भरने के लिए हैं, आज रिश्तेदारियाँ,
हर कोई रिश्ता यहाँ पर, आज एक व्यापार है ||
मैं भी हूँ शायद फरेबी, और फरेबी आप हैं,
झूठ है ये- मुझको तुमसे, तुमको मुझसे प्यार है ||
जा रही है ये नज़र, इस छोर से, जिस छोर तक,
भूल कर कर्त्तव्य, सबको याद बस, अधिकार है ||
आज आदम गर कहीं तू है ? तो आकर देख ले,
क्या तेरे अरमान थे ? और क्या तेरा परिवार है ||
रचनाकार - अभय दीपराज
GHAZAL - 17
ग़ज़ल
आओ, फिर आवाज़ दें हम, धर्म के पुरुषार्थ को |
फिर से धरती पर बुलायें, सत्य को, परमार्थ को ||
आज धरती पर ग्रहण है, पाप और अन्याय का,
आओ फिर दिल से पुकारें, कृष्ण को और पार्थ को ||
रात भर का है अन्धेरा, पाप का साम्राज्य ये ,
याद रख्खो, मत भुलाओ, इस अमर शास्त्रार्थ को ||
हम मनुज हैं और मनुज रहना हमारा धर्म है,
आओ, हम विश्वास से, दोहरायें इस भावार्थ को ||
मत कहो, ये धर्म और ये सत्य अब निःसार है,
आत्माओं में उतारें, आओ, इस दिव्यार्थ को ||
विश्व के कल्याण की, आओ, करें हम कामना,
आओ, होली में जला दें, पाप को और स्वार्थ को ||
जाग जाये यदि मनुजता, विश्व ये कुंदन बने,
आओ गायें, मिल के इस पावन-अमर चरितार्थ को ||
रचनाकार - अभय दीपराज
आओ, फिर आवाज़ दें हम, धर्म के पुरुषार्थ को |
फिर से धरती पर बुलायें, सत्य को, परमार्थ को ||
आज धरती पर ग्रहण है, पाप और अन्याय का,
आओ फिर दिल से पुकारें, कृष्ण को और पार्थ को ||
रात भर का है अन्धेरा, पाप का साम्राज्य ये ,
याद रख्खो, मत भुलाओ, इस अमर शास्त्रार्थ को ||
हम मनुज हैं और मनुज रहना हमारा धर्म है,
आओ, हम विश्वास से, दोहरायें इस भावार्थ को ||
मत कहो, ये धर्म और ये सत्य अब निःसार है,
आत्माओं में उतारें, आओ, इस दिव्यार्थ को ||
विश्व के कल्याण की, आओ, करें हम कामना,
आओ, होली में जला दें, पाप को और स्वार्थ को ||
जाग जाये यदि मनुजता, विश्व ये कुंदन बने,
आओ गायें, मिल के इस पावन-अमर चरितार्थ को ||
रचनाकार - अभय दीपराज
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