ग़ज़ल
दोस्तों, फिर आदमीयत को, ज़रा आवाज़ दो |
गीत एक तुम भी उठा लो, मुझको भी एक साज़ दो ||
माँ बुलाती है हमें फिर , अपनी रक्षा के लिये,
फिर से अपनी शक्ति को तुम, एक नया परवाज़ दो ||
धर्म ने फिर से पिता बनकर, पुकारा है हमें,
आओ, इसके माँ को फिर, माँ का अंदाज़ दो ||
डस रहा है आजकल, अन्याय जग में न्याय को,
न्याय की उजली सुबह को, फिर नया आगाज़ दो ||
फ़र्ज़ के फरमान से हम, बे-खबर हैं आजकल,
फ़र्ज़ को फिर से पुकारो, और उसे फिर ताज दो ||
आजकल अधिकार का, हमको नशा सा हो गया,
इस ज़हर को अब न ज़्यादा, और ज़्यादा नाज़ दो ||
आदमी हैं हम, हमारी राह है- इन्सानियत,
आज के इस वक़्त को फिर, ये दिशाएँ आज दो ||
रचनाकार - अभय दीपराज
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